एक दीवार सी दिखती है,
मैं तुम्हें देखता हूँ तो,
दीवार के इस तरफ, एक ‘तुम’ हो,
जिसे तुमने ही बनाया है,
अपनी सहुलियत के हिसाब से,
जिसको कितना, जैसा जीतना,
तुम, तुमको दिखाती हो,
उसे उतना, जैसा जितना,
तुम्हारा ‘तुम’ ही दिखता है,
पर, मुझको तुम्हारा ‘तुम’,
एक प्रतिबिबं सा लगता है,
जिससे तुम्हारे पीछे की,
दीवार साफ़ नज़र आती है,
तुम्हारी बनाई दीवार के पीछे,
मुझे ‘” तुम ‘” महसूस होती हो,
जैसे दीवार के आगे की छाया,
दीवार के पीछे की “तुम” की है,
मैं तुम्हारी दीवार के पीछे की ,
“‘ तुम “‘से मिलना चाहता हूँ।
आकाश पाँचाल