अब मैं इस किताब का आख़री पन्ना सजा रहा हूँ , पन्ऩै काफ़ी ज़्यादा हो चुके है , और अब कोई नया लम्हा भी तो नहीं, जो मैंने उसके साथ बिताया हो ।।। सब पुराने ही रह रह कर याद आते है , अब ऐसा कोई नया लम्हा हो भी अगर तो उसकी ास भी नही ।।।।
तो सोचा अब बस करते है ।।।।
” तुम्हारे साथ का सफ़र बहुत ख़ूबसूरत रहा “
से ख़त्म कर दिया मैंने आख़री पन्ना ।
मैने सारी किताब का सार एक पंक्ति मै समेट उसे भेजा ,
” सुनो…. तुम्हे बहुत मिसस् करता हूँ कभी कभी “…. ” क्यों ?? हमने तो ऐसा कोई ख़ास वक़्त भी नहीं गुज़ारा साथ “…उसने कहा ।।।।
अब मैं इस किताब के पीछे के पन्ने पलटता हूँ तो पढ़ नहीं पता हूँ ,
शायद मोतियाबिंद हुआ है मुझको ।
आकाश पाचांल